बैठ जाता हूँ मिटटी पे अक्सर, क्यूंकि मुझे अपनी औकात अच्छी लगती है |
मैंने समंदर से सीखा है जीने का सलीका , चुपचाप से बहना और अपनी मौज में रहना | |
ऐसा नहीं है की मुझ में कोई ऐव नहीं है , पर सच कहता हूँ मुझ में कोई फरेब नहीं हैं |
जल जाते है मेरे अंदाज़ से मेरे दुश्मन , क्यूंकि एक ज़माने से न मैंने महोबत बदली है और न ही दोस्त बदले है | |

एक घड़ी खरीदकर हाथ में क्या बाँध ली , यह वक़्त तोह पीछे ही पढ़ गया मेरे |
सोचा था घर बनाकर सकूं से बैठूंगा , पर घर की जरूरतों ने मुसाफिर बना डाला | |
सकूं की बात मत कर ऐ ग़ालिब , वोह बचपन वाला ऐतबार अब नहीं आता |
शौंक तोह माँ बाप के पैसों से पूरे होते है , अपने पैसो से तोह बस जरूरते ही पूरी हो पाती है | |

जीवन की बागडोर में वक़्त के साथ रंगत चली जाती है
हस्ती खेलती ज़िन्दगी भी आम हो जाती हैं
एक सबेरा था जब हँसकर उठा करते थे हम, और आज कई बार बिना मुस्कुराये ही शाम हो जाती है |
कितनी दूर निकल गए हम रिश्तो को निभाते निभाते , खुद को खो दिया अपनों को पाते पाते | |

लोग कहते है हम मुस्कुराते बहुत है , और हम थक गए अपना दर्द छुपाते छुपाते |
खुश हूँ सबको खुश रखता हूँ , लापरवाह हूँ फिर भी सब की परवाह करता हूँ | |
चाहता हूँ की दुनिया को बदल दूँ , पर दो वक़्त की रोटी के जुगाड़ से फुर्सत नहीं मिलती दोस्तों |
महंगी से महंगी घड़ी पहन के देख ली , पर यह वक़्त कभी मेरे हिसाब से नहीं चला | |
यूँ ही हम दिल को साफ़ रखने की बात करते हैं , पता नहीं था की क़ीमत तो चेहरों की हुआ करती हैं |
अगर खुदा नहीं है तो उसका ज़िक्र क्यों , और अगर खुदा है तो फिर फ़िक्र क्यों | |

दो बाते अपनों को इंसान से दूर कर देती हैं , एक उसका अहम और दूसरा उसका बहम |
पैसे से सुख कभी ख़रीदा नहीं जाता दोस्तों , और दुःख का कोई खरीददार नहीं होता | |
मुझे ज़िन्दगी का इतना तजुर्बा तो नहीं पर सुना है सादगी में लोग जीने नहीं देते |
किसी की गलतियों का हिसाब न कर , खुदा बैठा है तू हिसाब न कर ; ईश्वर बैठा है तू हिसाब न कर | |
- हरिवंशराय बच्चन
मैंने समंदर से सीखा है जीने का सलीका , चुपचाप से बहना और अपनी मौज में रहना | |
ऐसा नहीं है की मुझ में कोई ऐव नहीं है , पर सच कहता हूँ मुझ में कोई फरेब नहीं हैं |
जल जाते है मेरे अंदाज़ से मेरे दुश्मन , क्यूंकि एक ज़माने से न मैंने महोबत बदली है और न ही दोस्त बदले है | |

एक घड़ी खरीदकर हाथ में क्या बाँध ली , यह वक़्त तोह पीछे ही पढ़ गया मेरे |
सोचा था घर बनाकर सकूं से बैठूंगा , पर घर की जरूरतों ने मुसाफिर बना डाला | |
सकूं की बात मत कर ऐ ग़ालिब , वोह बचपन वाला ऐतबार अब नहीं आता |
शौंक तोह माँ बाप के पैसों से पूरे होते है , अपने पैसो से तोह बस जरूरते ही पूरी हो पाती है | |

जीवन की बागडोर में वक़्त के साथ रंगत चली जाती है
हस्ती खेलती ज़िन्दगी भी आम हो जाती हैं
एक सबेरा था जब हँसकर उठा करते थे हम, और आज कई बार बिना मुस्कुराये ही शाम हो जाती है |
कितनी दूर निकल गए हम रिश्तो को निभाते निभाते , खुद को खो दिया अपनों को पाते पाते | |

लोग कहते है हम मुस्कुराते बहुत है , और हम थक गए अपना दर्द छुपाते छुपाते |
खुश हूँ सबको खुश रखता हूँ , लापरवाह हूँ फिर भी सब की परवाह करता हूँ | |
चाहता हूँ की दुनिया को बदल दूँ , पर दो वक़्त की रोटी के जुगाड़ से फुर्सत नहीं मिलती दोस्तों |
महंगी से महंगी घड़ी पहन के देख ली , पर यह वक़्त कभी मेरे हिसाब से नहीं चला | |
यूँ ही हम दिल को साफ़ रखने की बात करते हैं , पता नहीं था की क़ीमत तो चेहरों की हुआ करती हैं |
अगर खुदा नहीं है तो उसका ज़िक्र क्यों , और अगर खुदा है तो फिर फ़िक्र क्यों | |
दो बाते अपनों को इंसान से दूर कर देती हैं , एक उसका अहम और दूसरा उसका बहम |
पैसे से सुख कभी ख़रीदा नहीं जाता दोस्तों , और दुःख का कोई खरीददार नहीं होता | |
मुझे ज़िन्दगी का इतना तजुर्बा तो नहीं पर सुना है सादगी में लोग जीने नहीं देते |
किसी की गलतियों का हिसाब न कर , खुदा बैठा है तू हिसाब न कर ; ईश्वर बैठा है तू हिसाब न कर | |
- हरिवंशराय बच्चन
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